राजा रजवाड़ों में ऐसा जाट राजाओं का भारी व्यक्तित्व जिनके नाम का लोहा मुगल ही नहीं बल्कि अंग्रेज भी मानते थे। उसी राज परिवार में महाराज बदन सिंह के यहां सूरजमल का जन्म हुआ। तारीख थी 13 फरवरी 1707। जिन्होंने आगे चलकर 17 फरवरी 1733 को एक दुर्ग का निर्माण किया, जिसे लोहागढ़ दुर्ग के नाम से जाना जाता है। जी हां, यह वही अजेय दुर्ग है जिसे आज तक कोई जीत नहीं पाया। 56 वर्ष के जीवन काल में महाराजा सूरजमल ने आगरा और हरियाणा जैसे राज्यों पर विजय प्राप्त करते हुए इन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया और प्रशासनिक ढांचे में कई तरह के बदलाव किए। वह विवादों का फैसला सर्वप्रथम बातचीत और समझौते के जरिए करना पसंद करते थे। उन्हें धर्मनिरपेक्ष राजा के रूप में जाना जाता है।
इतिहासकारों का कहना है कि जिस दौर में राजपूत राजा मुगलों के साथ रिश्ते बना रहे थे। उस दौर में वह अकेले ऐसे राजा थे जो मुगलों से लोहा ले रहे थे। सूरजमल को स्वतंत्र हिन्दू राज्य बनाने के लिए भी जाना जाता है। उनके इसी गौरवशाली इतिहास के कारण न केवल जाट समुदाय में बल्कि भारतीय राजाओं के इतिहास में उनका नाम गौरव और आदर के साथ लिया जाता है।
पानीपत और महाराजा सूरजमल
आपको ज्ञात होगा पानीपत का तीसरा युद्ध मराठा साम्राज्य (सदाशिव राव भाउ) और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली उर्फ अहमद शाह दुर्रानी के बीच हुआ। समय था 14 जनवरी 1761 का और जगह थी वर्तमान में हरियाणा में स्थित पानीपत का मैदान। इस युद्ध में मुगलों का साथ दिया दोआब के अफगान रोहिला और अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने।
वहीं मराठों की मदद कर रहे थे भरतपुर के महाराजा सूरजमल। कई इतिहासकारों का मानना है कि मराठा शासकों के लूटमार रवैए के कारण आमेर और अन्य राजाओं ने उनकी कोई मदद नहीं की।
अब सूरजमल की ओर से की गई मदद का परिणाम तो आखिर झेलना ही था। जिसके चलते अहमदशाह अब्दाली ने सूरजमल के विरुद्ध भरतपुर की ओर कूच कर दिया। भरतपुर के नजदीक एक जगह है ‘डीग’ उसे घेर लिया। इसके जवाब में सूरजमल ने जाट सेना का एक दल अलीगढ़ की तरफ भेज दिया और 17 मार्च को अलीगढ़ के किले पर विजय प्राप्त कर उसे नष्ट कर दिया। जिसके चलते अब्दाली को डीग का घेरा उठा लेना पड़ा।
वहीं महाराजा सूरजमल की 14वीं पीढ़ी के महाराज विश्वेन्द्र सिंह का कहना है कि वास्तविकता तो यह है कि पेशवा और मराठा जब पानीपत का युद्ध हारकर घायल अवस्था में लौट रहे थे तो महाराजा सूरजमल और महारानी किशोरी ने 6 माह तक संपूर्ण मराठा सेना और पेशवाओं को अपने यहां पनाह दी थी। यहां तक कि खांडेराव होल्कर की मृत्यु भी तत्कालीन राजधानी कुम्हेर में ही हुई और आज भी वहां के गागरसोली गांव में उनकी छतरी बनी हुई है। जो कि इसका जीता जागता उदाहरण है।