Bhagat Singh. 29 मार्च 1931 को कांग्रेस का कराची अधिवेशन तय किया गया। इससे 6 दिन पहले भगत सिंह को फांसी दे दी जाएगी ये नहीं पता होगा। साथ में सुखदेव और राजगुरू का भी नाम होगा ये तो किसी ने सोचा भी नहीं होगा। अधिवेशन में उदासी छाई हुई थी। सबके मन में एक ही विचार कौंध रहा था कि तीनों शहीदों को बचाने के लिए कांग्रेस ने क्या किया?
ये वो समय था जब गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी, लेकिन गांधीजी जहां भी गए, उनसे केवल इसी बारे में पूछा गया। चूंकि उस वक्त कांग्रेस के युवाओं में निराशा का माहौल बन गया था। अधिवेशन में आए ज्यादातर युवाओं ने काली पट्टी बांध रखी रखी थीं। वह मान रहे थे कि शहीदों को बचाने के लिए गांधी की ओर से की गई सिफारिशें काफी नहीं थीं। उनका ये भी मानना था कि अगर गांधीजी इर्विन के साथ समझौते को भंग करने की धमकी देते तो अंग्रेज निश्चित तौर पर फांसी को उम्रकैद में बदल देते।
सुभाष चंद्र बोस ने गांधी से कहा था
देश की जनता और खासकर युवाओं को अंदाज था कि गांधी-इर्विन समझौते और कांग्रेस सरकार के बीच बातचीत के चलते तीनों क्रांतिकारियों की जिंदगियां बख्श दी जाएंगीं। सुभाष चंद्र बोस ने गांधी से कहा भी था कि यदि जरूरत पड़े तो भगत सिंह और अन्य साथियों के सवाल पर उन्हें वायसराय से समझौता तोड़ लेना चाहिए, क्योंकि फांसी समझौते की भावना के खिलाफ है। हालांकि इसके साथ ही बोस ये भी मानते थे कि गांधीजी ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की।
आखिर में गांधी ने कहा कि..
कुलदीप नैयर की किताब ‘द मार्टिर भगत सिंह एक्सपेरिमेंट इन रिवोल्यूशन’ में लिखा है कि गांधीजी के सचिव महादेव देसाई ने बताया कि गांधीजी ने कहा है, ‘मैंने अपनी ओर से हरसंभव जोर डालने की कोशिश की. मैंने वायसराय को एक निजी पत्र भेजा, जिसमें मैंने अपने हृदय और मस्तिष्क को पूरी तरह उड़ेल दिया, मगर ये सब बेकार गया। इंसानी दिमाग की पूरी भावना और संवेदना के साथ जो कुछ किया जा सकता था, किया गया – न केवल मेरे द्वारा बल्कि पूज्य पंडित मालवीय और डॉ. सप्रू ने भी बहुत प्रयास किया।’