Plasma Therapy. कोविड19 नेशनल टास्क फोर्स और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने कोरोना रोगियों के मैनेजमेंट के लिए क्लिनिकल गाइडलाइन्स में अब बदलाव कर दिया गया है। इसके तहत कोविड ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल में शामिल प्लाज्मा थेरेपी को अब हटा दिया है। इस थेरेपी के चलते देश की जनता को किस तरह से गुमराह किया गया। इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जितना समय कोरोना की वैक्सीन के ट्रायल में लगा, उसे करीब दोगुना समय ये पता करने में लगा कि प्लाज्मा थेरेपी कोरोना के इलाज में कारगर है या नहीं।
14 माह पहले ICMR ने दी थी मंजूरी
केरल देश का पहला राज्य था जिसने प्लाज्मा थेरेपी पर रिसर्च और प्रोटोकॉल शुरू किया था। यहां के श्री चित्रा तिरुनल इंस्टिट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज एंड टेक्नॉलजी (SCTIMST) को आईसीएमआर ने प्लाज्मा थेरेपी के परीक्षण के लिए 11 अप्रैल 2020 को मंजूरी दे दी थी। थेरेपी के विस्तृत परिणाम आने से पहले ही दिल्ली एम्स के साथ-साथ भेड़चाल में देश के तमाम राज्यों ने इसका परीक्षण अपने यहां शुरू कर दिया। मजे की बात ये है कि ICMR भी मंजूरी देता चला गया।
जब 39 केंद्रों पर एक साथ किया टेस्ट
जब इस थेरेपी के तहत मंजूरी मांगने वाले राज्यों की संख्या बढ़ी तो 22 अप्रैल 2020 से 14 जुलाई 2020 के बीच देशभर के करीब 39 केंद्रों पर एकसाथ टेस्ट किया गया। इस टेस्ट में कुल 464 मरीजों को शामिल किया गया था। 2 महीने के बाद जब इसका अध्ययन सामने आया तो पता चला कि प्लाज्मा थेरेपी मरीजों को फायदा पहुंचाने में नाकायाब रही है। ये अध्ययन सितंबर 2020 को एक मेडिकल जर्नल में भी प्रकाशित हुआ।
वैक्सीन के बाद भी ICMR नहीं ले पाया निर्णय?
परीक्षण के बाद 21 अक्टूबर 2020 को ICMR के डायरेक्टर जनरल बलराम भार्गव ने कहा था कि कोरोना के इलाज की गाइडलाइंस में से प्लाज्मा थेरेपी को हटाए जाने को लेकर विचार चल रहा है। ICMR की नेशनल टास्क फोर्स इस पर गंभीरता से विचार कर रही है। बता दें कि इसके 2 महीने बाद ही भारत में 2 जनवरी 2021 को पहली वैक्सीन कोविशील्ड COVISHIELD को मंजूरी मिल गई थी, लेकिन इसके बाद भी प्लाज्मा थेरेपी को ट्रीटमेंट के प्रोटोकॉल से हटाने में 5 महीने का लंबा वक्त लग गया। तब तक देश में 2 और दुनिया में तमाम वैक्सीन बनकर तैयार हो चुकी थीं।
थेरेपी के इस्तेमाल में इतनी जल्दबाजी क्यों?
केरल ने प्लाज्मा थेरेपी का परीक्षण तभी शुरू कर दिया था। जब यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने भी इसे मंजूरी नहीं दी थी। वहीं 2003 में सार्स महामारी, एच-1एन-1 इन्फ्लुएंजा और 2012 में मार्स की महामारी एच-1एन-1 इन्फ्लुएंजा के दौरान भी प्लाज्मा थेरेपी पर अध्ययन किया गया था। इतना ही नहीं शोधकर्ताओं के अनुसार इबोला में भी इसका परीक्षण किया गया था, लेकिन उसमें भी ये असरदार साबित नहीं हुई थी।
क्या है प्लाज्मा थेरेपी?
यह महामारी काल में विकसित किया गया इलाज का एक तरीका था। इसमें कोरोना वायरस को मात दे चुके मरीज का प्लाज्मा कोरोना पीड़ित मरीज के शरीर में चढ़ाया जाता है। वैज्ञानिकों का कहना था कि संक्रमण से उबर चुके मरीज के शरीर में कोरोना वायरस के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता बन जाती है। जिसे करीब 1 महीने बाद प्लाज्मा के रूप में संक्रमित व्यक्ति को दिया जा सकता है। एक बार में कोरोना से ठीक हो चुके मरीज के शरीर से 400 मिलीलीटर प्लाज्मा निकालकर दो संक्रमित रोगियों का इलाज किया जा सकता है।